Friday 15 January, 2010

क्या लागे मेरा

एक होटल के कमरे में
एक सर्द सुबह बैठे बैठे
खिड़की के पार ज़रा दूर
दिखा भीख माँगता बूढ़ा
दिल पसीजा जी किया
दे दूँ ये कम्बल उसको
उठा ही था हाथ मे ले
कि खयाल आया अरे
ये तो मेरा है ही नहीं
न कम्बल न कमरा
लेकिन
वो कमरा जिसे घर कहते हैं
उसमे कम्बल
जिसे अपना समझते हैं
हे ईश्वर !
कब खयाल आयेगा कि
वो भी मेरा नहीं है !

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