Monday, 25 January 2010

शाम

सुबह आँख खोलते ही
सामने खड़े हो जाते हैं मुँह बाये
बहुत से काम
थोड़े वादे
कुछेक मुलाकातें
ढेर सी भाग दौड़
काटना ही तो कहेंगे इसे
जबरन चलती रहती है
उठापटक दिन भर
सारा दिन बुलाती रहती है शाम हमें
कुछ है जो खींचता सा है
कुछ है जो दिखता है आगे
जिसे काटना न पड़ेगा
और जो कट जायेगा तो
अच्छा न लगेगा
फ़िर हो ही जाती है शाम
और फ़िर कुछ नहीं होता
बेवफ़ा सी मालूम होती है शाम हमें
अभी जब लगता है
दोपहर ही है ज़िन्दगी में
होगी कभी शाम भी
सोचता हूँ क्या वह भी
निकलेगी बेवफ़ा

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